एक आग जो इस देश इस समाज इस प्रांत के अंदर सुलग रही है, उस अलख को जलाए रखना है ..हमे खुद को बचाए रखना है । उन्हें जातिवाद करने में मजा आता था, उससे उन्हें वोट मिलते थे, उन्हें धर्म की राजनीति करने में मजा आता था, उससे उन्हें सपोर्ट मिलता था ..जनता को न वोट से मतलब था, न सपोर्ट से ..वो तो मतलब रखती थी काम के पासपोर्ट से ..मगर जो जनता जाति और धर्म की राजनीति के गणित में उलझी रहे, उसका पासपोर्ट नहीं बन पाता था ..और उसका मसला वहीं का वहीं रह जाता था । इस तरह इस प्रांत, इस समाज और देश के सारथी सिर्फ वोट और सपोर्ट वाले नेता या समाजसेवी ही नहीं ..जनता भी है । सभी इसके सारथी हैं ! ऐसे ही एक प्रांत में वोट और सपोर्ट का मुददा बड़ी तेजी से उछला था ..।। अमीर-गरीब, काले-गोरे का भेद पुराना हो चुका था ..अब बात होती थी ..जाति और धर्म की, ..वोट और नोट बैंक की । एक था राजा, एक थी रानी ..दोनो मिले खत्म हुई कहानी । यह सब पुरानी बातें हैं, इस कहानी की शुरूआत ही राजा और रानी के मिलने से थी । राजा ने वोट की रानी से कहा, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे नोट दंूगा ..। रानी ने कहा, न दंू तो ..। राजा ने कहा, ..तो चोट दूंगा । वैसे भी राजा और रानी एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं । रानी झांसी की रानी तो थी नहीं कि अपने गर्व और अभिमान के लिए लड़ जाती । उसे तो बस अपने लिए लड़ना था । वह जीत गई, वोट हार गई ..वोट हार गया, प्रजातंत्र हार गया ।
उनसे बस रेल में यंू ही चलते-चलते मुलाकात हो गई थी और उनकी उपरोक्त बातों व शैली ने मुझे प्रभावित किया था, लिहाजा उनकी निराली अदा पर मैं भी उनसे कुछ जुड़ सा गया ।‘महामहिम ! आप किस जमाने की बात कर रहे हैं ?’‘मैं इसी जमाने की बात कर रहा हंू, सच कहिए तो सारे जमाने की बात कर रहा हंू । लगता है, आप समझे नहीं ..।’‘समझाइए ।’‘राजा-रानी का किस्सा ..किस्सा कुर्सी का ..शतरंज की बिसात पर इनकी बादशाहत आज भी कायम है ।’ - ..सपफर में महोदय की बातें मुझे अच्छी लगने लगीं - ‘..वही किस्सा कल भी था, आज भी वही चल रहा है ..। नई सभ्यता में नए अंदाज में ।’उनकी सरस शब्दावली यात्रा हमारी सह यात्रा के साथ जारी रही । सच कहंू तो महोदय की सरस बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं कि चलो ! यात्रा में कोई तो अच्छा हमसफर मिल गया, जो अपनी पसंद का है ..अब सफर आराम से गुजर जाएगा ।‘एक पते की बात कहूं, ..आजकल के नेता अभिनेताओं से अच्छी एक्ंिटग कर लेते हैं, क्योंकि वैसे भी आजकल के अभिनेताओं को एक्ंिटग से कोई मतलब तो है नहीं । ..इसलिए हमारे अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, राजकपूर, राजेन्द्र कुमार, गोविंदा ..सब हमारे नेता ही हैं ।’‘मेरा मानना है कि हमारे नेताओं को अपनी कुशल अभिनय क्षमता के लिए दादा साहब पफाल्के अवार्ड मिलना चाहिए, और हमारे अभिनेताओं को परमवीर चक्र ..।’‘नेताओं को दादा साहब फाल्के अवार्ड की बात तो समझ आई मगर अभिनेताओं को परमवीर चक्र ..।’‘..दरअसल आज के अभिनेताओं को एक्ंिटग से कोई मतलब तो है नहीं, हमारे नेता सच की एक्ंिटग करते हैं तो अभिनेता बस एक्ंिटग की एक्ंिटग करते रहते हैं ..सो बिना गोली की बंदूक की तरह इनकी एक्ंिटग शहीद है । जब इनकी एक्ंिटग शहीद है तो इनकी एक्ंिटग पर जनता और ये भी अपनी एक्ंिटग पर शहीद हैं ..। ..तो शहीदों को क्या मिलता है, ..परमवीर चक्र ही ना ..! ’मैंने उनकी तारीफ उनकी शैली में ही की ।‘इतने कमाल के आइडिया आप लाते कहां से हैं ?’‘मेरा दिमाग आइडिया के हीरों की खान है, मगर कोई इसे कोयले की खान से ज्यादा समझता ही नहीं ..तो मैं क्या करूं ? ..खान से याद आया दृ। अब आप शाहरूख, सलमान, आमिर या सैफ अली खान मत कहना ..।’उनके सरस अंदाज का मैं कायल हो गया था । अभी कुछ कहता कि वह वही कहने लगे जो कहते आ रहे थे, मगर इस बार अंदाज जुदा था ।‘क्या आप जानते हैं, ..समय के अनुसार राजनीति का अंदाज बदला है काम नहीं ..।’‘आज के शासक वही हैं, जो कल के थे ..उद्योगपति, ठेकेदार, बिचैलिए ..पहले यही जमींदार, साहूकार वगैरह थे । ..हां, ..अब इस लिस्ट में कुछ दिनो से साधु-महात्मा भी शामिल हो गए हैं, ..मगर ये भी किसी काल में कब नहीं थे, धर्म के ठेकेदार ..?’ - महोदय के बात करने की जो कि राजनीतिक शैली कुछ दार्शनिक हो चली फिर भी वह कर्णप्रिय थी क्योंकि वहां भी राजनीति थी - ‘प्रकृत्ति का सिघांत है, अमीर गरीब पर बली निर्बल पर शासन करेगा ..और इसे कोई नहीं बदल सकता । ..यही कारण है कि जब गरीब भी अमीर बनना चाहता है तो वह भी गरीब का ही इस्तेमाल करता है । निर्बल जब बली बनना चाहता है तो वह भी निर्बल का ही शोषण करता है ।’‘आप समाजवादी हैं ?’‘..समाजवादी हंू या साम्राज्यवादी ..क्या फर्क पड़ता है ? ..फर्क तो तब पड़ता है, जब समाजवाद या साम्राज्यवाद कुछ करता है और परिणाम जनता को भुगतना पड़ता है ।’‘अभी युग प्रजातंत्र में जी रहा है और आप मुझे राजतंत्र की कहानियां सुना रहे हैं ।’‘सुना आपने ..!’ - महोदय तेज आवाज में कहते हैं ।‘..किसे सुना रहे हैं ?’‘वाकई युग प्रजातंत्र में जी रहा है । चारो ओर राजतंत्र मौजूद है । सबो को मनमानी की छूट मिल गई है । प्रजा को प्रजातंत्र के नाम पर मनमानी की छूट मिल गई है ।’ - महोदय कुछ जोर से कहते हैं - ‘प्रजातंत्र है कहां ?’..फिर अपने ही सवाल का समर्थन करते हुए स्वयं ही उत्तर देते हैं ..।‘प्रजातंत्र का मतलब प्रजातंत्र द्वारा राज चलाना नहीं ..प्रजा के हित के लिए राज चलाना है ।’फिर किसी दादा-दादी की कहानियां सुनाने की दादा जमाने की शैली में बकने लगता हैं फिर भी अच्छा लगता है क्योंकि दादा-दादी की कहानियां सुने जमाना हो गया था। ‘एक पुराना किस्सा याद आता है, कहीं पढ़ा था - एक राजा था, एक थी उसकी प्रजा ..उस राज्य में एक कुआं था, उस कंुए का पानी एक दिन प्रजा के किसी एक आदमी ने पी लिया और वह पागल हो गया, और वह दूसरे को पागल समझने लगा ..दूसरे ने पिया वही हाल, तीसरे ने पिया तो वही हाल ..और देखते ही देखते उस कंुए का पानी पीकर सारी प्रजा पागल हो गई । अब एकमात्र राजा ही था, जिसने उस कंुए का पानी नहीं पिया था ..। वह वहां पहंुचा तो देखा कि सारी प्रजा पागल हो चुकी है, उसने प्रजा को समझाना चाहा तो प्रजा उसे ही पागल समझने लगी । राजा को समझ नहीं आया कि वह क्या करे ? उसके लिए राजा बने रहना मुश्किल हो गया । ..अंततः राजा भी उस कंुए का पानी पीकर पागल हो गया और उनकी जमात में शामिल हो गया । ’‘यही है प्रजातंत्र । ..प्रजा अगर पागल भी है तो उसका साथ दोगे तभी राज करोगे ।’उनसे परिचय जानने की उत्सुकता हो चली तो नाम और पहचान पूछ लिया तो ..।‘नाम !’‘..नाम और पहचान ..! ..कभी-कभी उन रिश्तों से भी दूर कर देती है जो दो अजनबियों के बीच तक भी मधुर संबंध बनाते हैं ।’- ..बात का भावार्थ उनकी राजनीतिक शब्दावली में समझ आया - ‘अभी आपको पता चल जाए कि मैं हिन्दू या आप मुसलमान, या आप बैकवर्ड मैं फारवर्ड, या आप फारवर्ड मैं बैकवर्ड ..तो सारा भाईचारा तेल लेने चला जाएगा । यही है प्रजातंत्र !’ - उनकी बात फिर घूम-फिरकर अपने मुद्दे पर पहंुच आई - ‘राजतंत्र में तो सिर्फ एक की मनमानी चलती है, प्रजातंत्र में तो एक-एक की मनमानी चलती है । प्रजा स्वच्छन्द है, इसलिए जो मन में आएगा, करेगी ।’मैंने पूछ दिया - ‘प्रजातंत्र गलत है ?’‘क्या सही है, क्या गलत ..प्रजा को तय करना है । ..कोई भी तंत्र गलत नहीं, नहीं तो सभी गलत ..सब उसके इस्तेमाल पर निर्भर है ।’ - महोदय ने राजनीति की सार्वकालिक वैश्विक यात्रा कराई - ‘इसी दुनिया में प्रजातंत्र है तो कम्युनिज्म भी, समाजवाद और साम्राज्यवाद भी, पफासीवाद और नाजीवाद भी ..जनता इन सबके बीच सफल असफल सत्ता के रूप में इन्हें जी रही है न । ..ऐसा तो है नहीं कि कोई भी सत्ता पधत्ति पूर्ण रूप से सफल या असफल है, किसी भी तंत्र की सफलता असफलता राजा और प्रजा पर निर्भर करती है ..इनका संतुलन बिगड़ा तो बात बिगड़ी । पुरानी कहावत है ..जैसा राजा वैसी प्रजा, जैसी प्रजा वैसा राजा ..ये उसका रूपांतरित स्वरूप है ।’‘स्थिति के अनुसार सभी जगह की शासन-पधति अलग है । ऐसा भी नहीं है कि हर समय वही पधति कामयाब हो, समय के अनुसार दूसरी पधति भी आती है ..मगर सबकी सफलता राजा और प्रजा के बीच के सामंजस्य और संतुलन पर आधरित है । इनमे से कोई भी अगर मनमानी करेेगा, तो तंत्र वैसा ही बनेगा ..और वैसा ही बनेेगा देश और प्रदेश ।’‘एक दिलचस्प बात यह भी है कि समय के अनुसार सीमाएं बदलती रहती हैं । ऐसे में कई जगह पुरानी पधति कायम रहती है तो कई जगह कोई नई पधति आ जाती है । ..मगर इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, फर्क सिर्फ तभी पड़ता है जब शासक और जनता का संतुलन गड़बड़ाता है ।’ - रेल पटरी बदलते हुए हिचकोले खाती है तो उन्हे समर्थन का एहसास होता है, वह जारी रहते हैं - ‘प्रजा निन्यान्वे तो राजा एक प्रतिशत भी नहीं ..फिर भी यह एक प्रतिशत से कम निन्यानवे पर शासन करते हैं । मालूम है क्यों ..? ..वे इन निन्यान्वे प्रतिशत लोगो की मानसिकता पर राज करते हैं, उन्हे मोटिवेट करते हैं ..या फिर प्रजा जो चाहती है, वही करते हैं । ..प्रजा गलत है, तो भी सही है !’‘राजा कुछ भी नहीं कर सकता, यदि प्रजा चाह ले तो ..तानाशाह रहे तो भी । तानाशाह वहीं पनपता है, जहां जनता स्वयं को राजा के पूर्ण हवाले कर देती है ..और वहां तानाशाह खत्म हो जाता है, जहां प्रजा जाग जाती है ।’रेलगाड़ी सीटी मारते हुए गंतव्य स्थान पर पहंुचने पर थी । ‘जनता में भाईचारा हो न हो, नेताओं में भाईचारा जरूर है ..जनता को इसकी समझ नहीं, और वह भी अच्छा ही है । जिस दिन जनता इस भाईचारेवाद को समझ लेगी, फिर ..!’ रेल की सीटी फिर बजती है । वह प्लेटफार्म पर आ रही थी । सफर समाप्त होने को था और हम दोनो अभी तक दो अनजबी बने थे । नाम और पहचान का काम तो महोदय ने पहले ही तमाम कर दिया था, लिहाजा मैंने उनसे कुछ और ही पूछा ।‘आप करते क्या हैं ?’‘आप विश्वास नहीं करेंगे ।’‘..टीचर, समाजसेवी, आलोचक ..।’‘अरे नहीं भई ..।’ - उन्होने मेरी बात का तत्काल उत्तर तो नहीं दिया बल्कि उसपर एक प्यार भरा कमेंट भी जड़ दिया - ‘मैं चाहे जो भी करता हंू मगर आपके बारे में मैं एक बात विश्वास से कह सकता हंू कि आप कम-से-कम राजनीति नहीं करते ..।’मुझे उनकी अदा पसंद आई मगर मैंने फिर भी उनके प्रति अपना प्रश्न दुहरा दिया । ‘फिर ।’‘राजनीति !’ - उन्होने मुझे क्षण भर के लिए अवाक छोड़ दिया । अभी मैं कुछ कहता, देखा कि प्लेटफार्म पर खड़े समर्थक पूफल-माला लेकर उनका इंतजार कर रहे हैं । उन्होने बाहर की ओर तैयार खड़े समर्थको की ओर हाथ हिलाया - ‘..जैसा राजा वैसी प्रजा, जैसी प्रजा वैसा राजा ..।’महोदय ने कहा और अपने उन मौन समर्थकों के साथ जो कि सफर के आरंभ से ही अजनबी बनकर उनके साथ बैठे थे के साथ सीध प्लेटफार्म की ओर निकल गए । अथवा यह भी कह सकते हैं कि उनसे वात्र्ता के क्रम में मेरा यह ध्यान भी नहीं गया था कि कौन उनके आस-पास है? और सचमुच जबतक वह गेट तक पहंुचते कई समर्थकों के साथ फूल-माला के साथ उनका भव्य स्वागत किया गया ।
ऐसी मुलाकातें कभी-कभी अच्छी लगती हैं । मुझे भी उसी जगह जाना था, जहां महोदय को जाना था । मुझे भी उनके भाषणवाली जगह ही जाना था, मगर किसी दूसरी जगह से होकर ..। मैं दूसरी जगह से होकर आया तो मेरे साथ कुछ लोग थे । एक बड़े मैदान में उनका भाषण चालू था । वह बड़े-बड़े संवादों के साथ अपनी प्रजा को मुग्ध् किए थे । मैं अपने कुछ लोगो के साथ उनके मंच के सामने पहंुच गया । उन्हें आश्चर्य हुआ । उन्होंने एक मुस्कान भरी । मैं अपने समर्थकों के साथ मंच पर चढ़ता हुआ उन तक पहंुच गया । उनके आश्चर्य की सीमा बढ़ती गई । मैंने उनतक पहंुचकर अपना विजिलेंस आइ0कार्ड दिखाया और उनके आश्चर्य की सीमा को सीमित करते हुए साथ चलने का इशारा किया । ‘मुझे नहीं मालूम था, मुझे जिन्हें ढंूढना है ..वह तो सपफर से साथ हैं ।’ ‘ऐसी मुलाकातें कम ही होती हैं ।’‘आपको हमारे साथ चलना होगा ..।’उन्होने मेरे चेहरे की ओर गौर से देखा, कुछ कहा नहीं ..। मैंने ही कहा - ‘आपके उफपर ..।’’अकेले में इंकाउंटर कर दिजीएगा, मगर जनता के बीच छलनी मत किजीए ..।‘ उन्होने कोई प्रतिरोध नहीं किया क्योंकि प्रतिरोध करने के लिए उनके चमचे जो खड़े थे ..। अपनी प्यारी जनता को हाथ हिलाकर अभिवादन किया और हमारे साथ चलते बने । ..रास्ते में जो कहना था, उन्होने कहा - ‘इस हथकड़ी का कारण जनता है । वह दोषी है । ..आप भी तो जनता हैं ।‘‘..इसलिए तो हथकड़ी पहना रहा हंू । ..सारी जनता एक-सी नहीं होती ।’ सरकारी गाड़ी में उनके साथ जब हम आराम से बैठे तब उनसे मैंने आराम से प्रश्न किया ।‘आपके उपर जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद वगैरह की राजनीति करने का आरोप है .।’‘इनके बिना आज की राजनीति है कहां ?’ - इस घड़ी भी उनका अंदाजे ब्यां बदला नहीं था - ’..मुजरिम ना कहना मुझे लोगो मुजरिम तो सारा जमाना है, पकड़ा गया वो चोर है जो बच गया वो स्याना है ..।‘ मुझे उनकी एक बात अच्छी लगी कि उन्होने अन्य नेताओं की तरह मुझे कोई प्रलोभन नहीं दिया, बल्कि उस शक्ति का अहसास कराया जिसके बूते वह खड़े थे । उनका यह प्रतिरोध मुझे अच्छा लगा, क्योंकि उनके प्रश्नों का उत्तर अच्छे से अच्छो के पास भी शायद ही होता ..।‘आप राजतंत्र और प्रजातंत्र, समाजवाद और साम्राज्यवाद, फासीवाद और नाजीवाद वगैरह की बात करते हैं । आप राजा और प्रजा के बारे में सबकुछ जानते हैं । ..फिर भी आपने सबकुछ जानते-समझते भी ऐसी राजनीति की ?’..मेरे एक सवाल का उन्होने कई जवाब दिया, जिसका अर्थ एक ही था ..।‘राजतंत्र - ..जैसा राजा वैसी प्रजा, जैसी प्रजा वैसा राजा .. - प्रजातंत्र ! जनता के सारथी हम हैं और हमारी सारथी जनता ..। ‘मुझे हथकड़ी पहनाकर क्या करेंगे आप, मेरी जगह कोई और चला आएगा ..? ..और वही करेगा, जो जनता चाहती है । ..किस-किस को हथकड़ी पहनाएंगे ? ..और सचमुच अगर हमे हथकड़ी पहना भी दिया तो हमारी और हम जैसों की निर्माता ..जिसे जनता एक-एक वोट कर हमे चुनती है ..इस जनता को हथकड़ी कैसे पहनाएंगे, ....जिसके पास एक-एक वोट का पावर है और इस पावर का वह वोट के नाम पर गलत इस्तेमाल कर रही है । इनसे एक बार कहकर देखिए कि जातिवाद वगैरह के बगैर वोट देकर देखो, सुन लेंगे आपकी ? नहीं! कुर्सी पर बिठाने से पहले उठाकर फेंक देंगे आपको । ..इनको विकास भी चाहिए तो जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रावाद वगैरह की बिसात पर । ..इस जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद वगैरह के खेल को कैसे रोकेंगे आप ?’‘प्रजातंत्र में प्रजा निरंकुश हो चुकी है । आज के प्रजातंत्र का एक सच यह भी है । ..यह प्रजातंत्र है, आप प्रजा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते । ..वह अपने और अपनी मनमर्जी के लिए फिर किसी न किसी रूप में एक नया मोहरा ढंूढ लेगी । ..और पब्लिक का हीरो कौन नहीं बनना चाहता ?’‘राजतंत्र में राजा का रथ उसकी मर्जी के अनुसार चलता होगा, वह उसका खुद सारथी होगा । ..मगर प्रजातंत्र में राजा के रथ की सारथी प्रजा है । प्रजा राजा के रथ के उन अश्वों की तरह है कि जिस ओर वह भागेंगे, राजा को रथ उसी ओर ले जाना होगा । ..नहीं तो राजा की कहानी खत्म ।’‘अगर नहीं तो इस प्रजातंत्र में एक दिन के लिए भी अपनी मर्जी का इस जनता का सारथी बनकर दिखाओ ।’ मैं सच कहंू तो उनके व्यक्तव्यों से मैं स्वयं में अपराधबोध महसूस कर रहा था। मुझे लग रहा था कि मैंने उन वोट करनेवाले असंख्य अपराधी को छोड़ सिर्फ एक को सजा दी है जो कि सच में उनके द्वारा तैयार किया गया सिर्फ एक मोहरा है, जिसे हम प्रजा के नाम से जानते हैं और उनका तंत्र - प्रजातंत्र ! ..इसका अर्थ तो यह हुआ कि असली मुजरिम तो दंड से बाहर है । क्या भीड़ दोषी नहीं होती ? इस ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया ? एक को रोकना आसान है, अनेक को रोकना मुश्किल ..राजा, प्रजा और कुएं की कहानी याद आ रही थी !
आरंभ