Wednesday, 31 July 2024

THE GREAT GOD : WRITER' S WRITING





THE WRITER'S PREVIOUS PUBLISHED ARTICLES

 

MAHANGAI DAAYAN


[ PUBLISHED : YUGPATRA ]






‘महाराज ! एक अछूत कन्या आई है ।’
‘मूर्ख ! कन्या कभी अछूत नहीं होती । और अगर संुदर हो तो ..।’
‘सुंदर है ।’ - सेवक ने उत्साह भरे स्वर में उस संुदर अप्सरावत् कन्या का बखान करते हुए कहा - ‘उसकी बातें छइयां-छइयां हैं, खुली उसकी बइयां-बइंया हैं उसकी अदा निराली है, आंखें तिरछी कटारी और चाल मतवाली है ..। आलमपनाह ! कहे तो अर्ज करें । इस रोग का मर्ज करें ।’
‘शुभान अल्लाह ! शुभान अल्लाह !’ राजा अति उत्साहित हो गया - ‘जिसका जिक्र इतना बेमिसाल है वह खुद कितना बेमिसाल होगी ।’
‘आज्ञा दें तो पेश करूं ?’
‘पेश किया जाए ।’
राजा के आदेश पर उस अछूत कन्या को उसके सामने पेश किया गया । वह कन्या राजा के सामने आकर खड़ी हो गई । सेवक ने उस कन्या पर राजा की मुग्ध् नजर देख उत्साहित स्वर में पफरमाया - ‘कहती है नृत्य कौशल में निपुण है ..कन्या सर्वगुण संपन्न है ।’
राजा को मुग्ध् व चुप देख सेवक ने चापलूसी का अंदाज बदला - ‘महाराज ! आज्ञा दें तो इसके नृत्य का आयोजन करें ?’
राजा ने कहा - ‘तथास्तु !’
वह कन्या किसी महारानी या पटरानी से कम नहीं लग रही थी । बस उसकी संपन्नता में उसकी विपन्नता कुछ हद तक आड़े आ रही थी । राजा मंत्र-मुग्ध् हो गया । उसने कन्या को सजाने का हुक्म दिया और वह नृत्य के लिए तैयार हो गई ।
उसकी आंखें तिरछी कटार थीं जो राजदरबारियों को उसके मृगनयनी होने का आभास करा रही थीं । उसी सांसों की चढ़ती-उतरती रौ सारे दरबारियों के सांसों की लौ बन रही थी । उसके कदमताल इस तरह सध्े हुए थे कि सारे दरबारी उसके साथ मदमस्त हो थिरकने पर मजबूर हो गए । राजा स्वयं भी उसपर लट्टू हो गया । उसके नृत्य-कौशल पर आंखों की चढ़ती-उतरती कटाक्ष पर नैतिकता इध्र से उध्र होने लगी, अर्थ-सूचकांक भागने लगे, सारे व्यापारी और ध्नी वर्ग ध्ड़ाम्-ध्ड़ाम् उसके कदमों में गिरने लगे और पैसे लुटाए जाने लगे । इस कारगुजारी में खुद को भी न्योछावर करने लगे सभी ।  
स्वयं राजा भी उसके मोहपाश में मुग्ध् हो गया । अपनी विवेकरानी को भी भूल गया । राजा का विवेकरानी से साथ जब छूट गया तो उसका असर प्रजा पर भी पड़ना ही था । वह राज-पाठ का मंत्रा भूल गया, सुरा और संुदरी के चक्कर में मदमस्त हो गया । तमाम दरबारी भी उसके साथ-साथ नाच रहे थे । बात जब जनता तक पहंुची तो जनता व्याकुल हो गई । अप्सरावत् कन्या के नृत्य का असर जब मूल्यांक, सूचकांक, मुद्रास्पिफति आदि पर पड़ना शुरू हुआ तो जतना को बात समझ में आई । वह अपनी फरियाद लेकर राजा के पास पहंुची तो राजा ने पहली नजर में फरियाद अनसुनी कर दी तो प्रजा विवेकरानी के पास गई । राजा ने वहां भी फरियाद अनसुनी करवा दी ।
राजा के साथ दरबारी उस अप्सरा के नृत्य पर ‘वाह-वाह’ कर रहे थे जनता ‘आह-आह’ कर रही थी । ऐसे ही समय गुजरता गया, राजा और प्रजा की कई नस्लें आईं गईं मगर राजा और प्रजा की कहानी यही रही । 
राजा ने विवेकरानी को अज्ञातवास दे दिया और उस अछूत कन्या ‘अप्सरा’ को पटरानी का दर्जा । उसकी मांग पर तबसे लेकर आजतक स्वर्णमुद्रा, महल, ध्नधन्य से लेकर लैपटाप, कार, बंगले वगैरह सभी न्योछावर किए जाते रहे । समय के बदलते परिप्रेक्ष्य के अनुसार जमींदार, साहूकार, राजदरबारी, झंडाबरदार अब उद्योगपति, ठेकेदार, राजनेता वगैरह बन गए । उन्हें लैपटाप् दिया गया तो प्रजा को ठेंगा देखा दिया गया । हवाई जहाज और रेलगाड़ियों मे उनके भाड़े मुपफत किए गए तो पब्लिक के लिए सरचार्ज लगा दिया गया । उन्हें भवन-के-भवन, कई आवासीय भूखंड दिए गए तो गरीबों के झोंपड़ों में आग लगा दी गई । उन्हें श्रृण दिया गया जिसका कोई सरकार भुगतान नहीं करा पाई मगर प्रजा ने जब श्रृण लिया तो उसका मूल्य उसे आत्महत्या कर चुकाना पड़ा । ऐसी अनगिनत कहानियां तबसे लेकर आजतक निर्बाध् जारी हैं क्योंकि उस अप्सरा का नृत्य जारी है ! राजा और दरबारियों को जनता की आह नहीं सुनाई दे रही थी । उन्हें वह अप्सरा नजर आ रही थी तो प्रजा को महंगाई डायन । आज भी वह बदलते समय के अनुसार थोक-मूल्य सूचकांक में गिरावट का छद्मरूप धरण कर अपने करतब दिखा रही है । ऐसे में राजा अपनी विवेकरानी को भूल उसके पीछे मुग्ध् है । दरबारी उसके साथ नाच रहे हैं और जनता उनके साथ-साथ ‘नाचने’ को मजबूर है । जनता भूख से आत्महत्या तक को मजबूर है तो राजदरबारी संसद के केंद्र में नाचती इस अप्सरा पर मुग्ध् हैं जो जनता को महंगाई डायन नजर आ रही है ।। 



BEBASEE


[ PUBLISHED IN HINDUSTAN PAPER IN @ 2011 ]



रचना-अमित कुमार सिन्हा ‘नयनन’

और पिफर ...

मेरे पास पैसे नहीं थे । मेरा बेटा अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था । अपने -परायों सभी से माँगकर देख चुका था, कोई भी काम न आया । यहाँ तक कि वर्षाें जिस मालिक की सेवा की, उसने भी मुझे खाली हाथ लौटा दियाऋ कहा अगले अलाॅटमेंट में से दूँगा, तबतक किसी से काम चला लो । अगला अलाॅटमेंट किसने देखा है, यहाँ तो आज-कल की बात हे । वह महीने-दो बाद आएगा तो उससे अपने बेटे को श्र(ांजलि अर्पित करूँगा । 
मेरी बीवी इसे गोद में ही छोड़ चल बसी । एक सहारा आया तो भगवान ने दूसरा छीन लिया, बल्कि पहला छीन लिया । यही इकलौता मेरा सबकुछ था । अभी मैं इसका सहारा था, मगर कल के लिए यह मेरी लाठी थी । बल्कि यह तो इस समय भी मेरा ही सहारा था, वरना इसके बिना मेरा एक पल भी कैसे गुजरता था।
आज मैं खुद को सचमुच बेबस और अनाथ महसूस कर रहा था । मैं दुनिया में अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं । इस दुनिया में बेबस और असहायों का भगवान भी नहीं । मगर मुझे अपने बेटे को बचाना है । उसे कुछ हो गया तो मैं कैसे जी पाउगा । उसकी खातिर, अपनी खातिर बचाना है उसे ।
आप देर कर रहे हंै श्रीमान् ! यदि ज्यादा देर हो गई तो केस हाथ से निकल जाएगा, पिफर हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएँगे । इसलिए जल्द-से-जल्द पैसे का प्रबंध् कीजिए । दवाओं से मरीज को सँभालने का वक्त निकल चुका है । आॅपरेशन करना होगा अब । वैसे भी यह केस हमारे हाथ का नहीं रहा । इसके आपॅरेशन के लिए इस बीमारी के शहर के सबसे बड़े चिकित्सक डाॅ वरूण को बुलाना पड़ेगा । जो लगातार हमारे संपर्क में हंै, मगर उनका आना आपकी पफीस अदायगी के बाद ही संभव है । - अस्पताल के डाॅक्टर ने आॅपरेशन का बिल थमा दिया । पच्चीस हजार था बिल, कुछ ज्यादा नहीं, मगर जब जेब में फूटी कौड़ी न हो तो पिफर एक पैसा भी पहाड़ होता है ।
आँसू आते-आते रह गए । निकल पड़ा बाहर, मगर जाना किध्र है मालूम न था । सारे रिश्ते-नाते मुसीबत में गौण हो गए थे, मन भी उनपर से हट गया था । आज दुनिया का हर आदमी मुझे अवसरवादी और मतलबपरस्त नजर आ रहा था । मन इध्र-उध्र भाग रहा था - इसका नोच लूँ, उसका झपट लूँ । मेरे उफपर किसी ने दया न की, मैं क्यों किसी का सोचूँ ? ऐसी विवशता व हालात ही अपराध् के द्वार खोलते हैं । मेरी जगह कोई भी होता तो ऐसा ही सोचता और गलत भी नहीं होता, क्योंकि नकारात्मकता राह खोजती है और जब हम अपनी सरल-सकारात्मक जिंदगी में उसे जगह नहीं देते है तो वह भाग्य के माध्यम से विरोधाभासी, अनुकूल व विवश परिस्थतियों के मध्य अपना रास्ता बनाती है । उस समय आप स्थिति के वश मे होते हैं, अतः कर्म नहीं तो मन से ही अवश्य उसे जगह दे देते हंै या पिफर वह जगह  ले लेता है, उसको जगह मिल जाती है । मैं भी उससे कुछ अलग नहीं था । उसे जगह दूँ या नहीं, उसने स्वयं से लिया या पिफर उसे स्वयं जगह मिल गई बिल्कुल प्राकृतिक रूप से प्रकृति के नियमों के अनुरूप ।
मैं परिस्थितियों का गुलाम पात्रा चलता रहा और एक बैंक के निकट जाकर कदम थम गए । उसे लूटने का ख्याल आ रहा था, मगर कैसे मालूम नहीं । बस जी चाह रहा था, अभी जाकर लूट लूँ और पिफर किसी तरह अपने मासूम बच्चे का आॅपरेशन करा निश्ंिचत हो लूँऋ इससे भी कर्ज मिलने से रहा था, क्योंकि इससे पर्याप्त कर्ज मैंने कुछ दिनों पूर्व ही अपने इस बच्चे के लिए उठा रखा था । दुनिया के आर्थिक ड्डोतों के तमाम रास्ते आजमा लिये थे ओर जहाँ-जहाँ से मिल सकता था, लेकर इतने दिन खींच चुका था । अब कहीं कोई राह नहीं थी । चैराहे पर बुत-सा खड़ा राह खोज रहा था ।
अभी मैं सोच में ही था कि इसी बीच एक अजनबी किस्म का मित्र यानि जिससे शायद ही कभी ज्यादा बोलचाल होती थी, दिख गया । उससे ज्यादा संपर्क नहीं रहने का एक कारण यह भी था कि वह स्वयं और उसकी समस्त मित्र-मंडली आवारा किस्म की थी और कुछेक तो बड़े घर से भी हो आए थे । चूँकि मैं उससे ज्यादा संपर्कित नहीं था, अतः इससे ज्यादा जानकारी न तो थी और न उसकी जरूरत ही थी मुझे तो बस पैसों की जरूरत थी । आम दिन होता तो उससे बात भी न करता मगर हालात की मजबूरी, प्यासे को बूँद की आश् मुझे उसके पास खींच ले गई । इस समय परिचित में एकमात्रा वही आदमी था जिससे जबान नहीं खोली थी और न नहीं सुना थाऋ और जबतक न नहीं सुना था, वह मेरे लिए भगवान के समान था । आशा के अनुरूप उसने पैसे तो नहीं दिए, स्वयं को असमर्थ बताया, भगवान जाने यह सच था या झूठ मगर इसके विपरीत उसने राह अवश्य बतला दी । उसने स्पष्ट कहा- माँगने से तुम्हें क्या .. मुझे भी कोई इतनी जल्दी पैसे नहीं देगा । मगर तुम मौके से मिल हो । आदमी शरीफ हो । मगर तुम्हारा बच्चा तुम्हारी साँस है और आदमी वहाँ अपनी सारी शराफत छोड़ देता है, जहाँ उसकी अपनी साँस अटक जाती है । डूबते जहाज में दूसरे की कोई नहीं सोचता, स्वयं को डूबता देख सभी दूसरे को डुबोकर भी बचना चाहते हंै । मैं ये सब इसलिए कह रहा हूँ कि तुम्हें सबसे पहले अपनी सोच की मानसिकता सुधरनी होगी । उसके बिना यह काम संभव नहीं । अपने अंदर से सही-गलत का ख्याल निकालना होगा या पिफर यह तय करना होगा कि तुम्हें बच्चा चाहिए या सही ... सही-गलत । ... और बच्चा चाहिए तो सीध्े अर्थों में एक खून करना होगा ।
उसने मेरा अंर्तमन झकझोरकर रख दिया और पहले से अंदर बैठा नकारात्मक अस्तित्त्व तो बहाने की प्रतिक्षा कर ही रहा था । झूठे टाल-मटोल और ना-नुकूर के बाद मैं तैयार हो गया और यह तय हो गया कि प्राणी चाहे कितना भी शरीपफ क्यों न हो, उसके कायम रहने की एक सीमा होती है - जिसे समय और परिस्थितियाँ तय करती हंै । ये दोनो समय और परिस्थितियाँ ऐसी सौदागर हंै, जो उनकी सीमा जानती हैं और उस सीमा पर ले जाकर उसका एक-न-एक दिन सौदा अवश्य ही कर डालती हैं । मगर उस वक्त ऐसा कुछ नहीं लगा कि मैंने अपने अंदर का कुछ खोया है, लगा ही नहीं कहीं जमीर मरा है । बल्कि पाने की आश् की ज्योत् जलने से एक उमंग का संचार अवश्य हुआ । मन में एक खटक अवश्य थीऋ मगर उसे बहाने की सांत्वना से शांत कर दिया । और अपराध् के लिए सक्रिय होते वक्त शायद ऐसा ही कुछ होता है अपराध्यिों के मन में - वे अपने दोष को सांत्वना के शब्दों से ढँककर सबकुछ प्रभु की माया या पिफर स्वयं को निष्पाप मानकर खुद को कत्र्ता बनाकर निकल पड़ते हैं, या पिफर कुछ निर्लज्ज सबकुछ जानते-मानते भी ऐसा करते है । फर्क सिपर्फ इतना है, एक बहाने का आवरण ओढ़ता है दूसरा नहीं । इस वक्त मेरे मन में बहाने का आवरण ही था । मुझे लग रहा था या पिफर कहें, मेरा बहाना था -
उपरवाला सबकुछ सोचकर रखता है । उसने मुस्कान और आँसुओं से भरी दुनिया यूँ ही नहीं बनाई है । यूँ ही अमीर-गरीब, सही-गलत, उच-नीच, रौशनी-अंध्कार, श्वेत-श्याम नहीं बनाया सबके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है। अब किस समय किसके लिए किस रूप में क्या रखता है, कौन जानता है ?    
अब चाहे जो हो, मुझे एक खून करना था और इसलिए करना था कि दुनिया का दूसरा ऐसा कोई काम नहीं था जो इतनी जल्दी इतने पैसे उपलब्ध् करा सके और मेरी जगह दूसरा कोई भी होता तो उसे ऐसे वक्त सिपर्फ ऐसा ही अपराध् का काम ये या पिफर दूसरा ही इतनी जल्दी इतने पैसे उपलब्ध् करा सकताऋ यदि कोई मददगार न हो तो । मैं अबतक सही-गलत का ख्याल छोड़ चुका था । पैसे ज्यादा मिल रहे थे, मगर मंैने बाकि उसे ही रखने को कह दिया क्योंकि आखिर इस समय वह मेरा भगवान ही तो था और उसकी अमूल्य कृपा के लिए उसके लिए मेरी यह एक छोटी-सी भेंट के समान थी । एडवांस सात हजार मिले और एडवांस मिलने के चैबीस घंटे के अंदर काम कर देना था, मगर मुझे तो उनसे ज्यादा जल्दी थी । आदमी दिखवाने मेरा अजनबी सम मित्र और एक और आदमी साथ चले और हिदायत दी गई कि कुछ भी हो पकड़े मत जाना । मगर उनसे ज्यादा मुझे इसकी परवाह हर हालत में थी, क्योंकि मेरा बच्चा अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा था ।
और उस आदमी जिसका कत्ल होना था, जिसे मुझे करना था - के घर से थोड़ी दूर गली के मोड़ पर मुझे खड़ा कर दिया गया । पिफर दोनो मुझसे अलग हो दूर खड़े हो गए । मैं इशारे की प्रतिक्षा में था । दिल ध्ड़क रहा था, मगर इरादा मजबूत था । और थोड़ी देर बाद वह आदमी कार से आता दिख गया । चूँकि वह कार में अकेला था अतः इशारा समझने में कोई देर न हुई कि ड्राइविंग सीट पर बैठे शख्स को ही मारना है । मंैने हृदय को कड़ा व भाव-शून्य किया और कुछ क्षणों के लिए अपने आप को भी भूल गया, अन्यथा साथ में मेरा जमीर भी था जो मुझे अंर्तद्वन्द के गृह-यु( में उलझा सकता था । और चूँकि यह मेरा पहला अनुभव होने जा रहा था, अतः मैं वैसी कोई चूक नहीं करना चाहता था जो मेरे बेटे की मौत का सबब बनता व जिसके लिए मैं यहाँ आया था । इसलिए यह निहायत ही जरूरी था कि इन निर्णायक क्षणों में खुद को पूर्ण नियंत्रित, उलझनरहित, स्थिर व कटिब( रखा जाए ताकि अंर्तद्वन्द की स्थिति न आए और आए भी तो अप्रभावी बनकर प्रभावी हो ।
और अब वह बिल्कुल मेरे पास था । मैंने हाथ दिया । उसने गाड़ी रोक दी और चूँकि मैं उसके लिए पूर्णरूपेण अजनबी था, अतः संशयित नजरों से देखते हुए उसने कार के बाहर सिर निकालकर मेरा परिचय जानना चाहा । मगर मैं उसकी हरकते नहीं अपना लक्ष्य देख रहा था । उसने नजरों से परिचय खोजा और मैंने पिस्तौल की दो गोलियों से उसे अपना परिचय दे दिया । एक गोली सिर व एक सीने में लगी व वह वहीं ढेर हो गया । उसके ढेर होते ही मैं भागा, तेज और तेज । मेरा दोस्त व उसका साथी पीछे-पीछे । मगर मेरे बेतहाशा भागने का कारण उनकी तरह डर नहीं बल्कि मेरा बच्चा था, जो हर पल मेरी आँखों के सामने घूम रहा था । इस बीच मुझे यह भी याद नहीं था कि जब मैंने उसे गोली मारी थी तो वह चीखा भी था या नहीं । मुझे कुछ नहीं बस अपना इकलौता बेटा दिख रहा था ।
और मैं अस्पताल पहुँचते-पहुँचते पसीने से तर-बतर हाँफ रहा था । इस बीच एक टेम्पू पकड़ यहाँ आया था, जिसे छुट्टðे नहीं रहने के कारण नंबरी का ही नोट थमा दिया जो मेरे इस कर्म के द्वारा अर्जित की गई पहली खुशी थी । मुझे नोट देते वक्त सुबह का ख्याल आ रहा था, जब पैदर आँखों के आगे अँध्कार लेता घूम रहा था । और मैं वक्त का अति कृतज्ञ उसने चंद घंटे पूर्व सबकुछ असंभव लगते कार्य को यूँ आसान-सा संभव कर दिया । अब मेरे माथे पर पैसे की कोई चिंता नहीं थी । मैं सीना चैड़ा कर डाॅक्टर के पास गया - डाॅक्टर साॅब ! मेरे बच्चे का आॅपरेशन कीजिए । अब पिफक्र की कोई बात नहीं है । पैसे का प्रबंध् हो चुका है ।
मैं भावावेश में क्या-क्या बोले जा रहा था, मुझे खुद याद नहीं । डाॅक्टर कुछ देर मुझे यूँ ही देखता रहा और मेरे तनिक चुप होते ही उसने कहा-आपने देर कर दी है महाशय । अभी-अभी खबर मिली है कि एक अपराध्ी ने डाॅक्टर वरूण की हत्या उनके निवास-स्थान से तनिक दूरी पर कर दी है, जब वे अकेले कार ड्राइव करते अपने क्लीनिक की ओर निकल रहे थे । एक गोली सीने और एक सिर में लगी थी और वे वहीं ढेर हो गए । अब कुछ नहीं किया जा सकता, समय निकल चुका है और इसके लिए हमें बहुत बहुत ही दुःख है ।
और मेरे सिर पर तो मानो बिजली गिर पड़ी । तो वह .... डाॅú वरूण । अंदर से मेरे बच्चे के चीखने की आवाज आई, जो ध्ीमे-ध्ीमे बढ़ती ही जा रही थी । और अब मुझे अपने बेटे को अपनी आँखों के सामने तड़प-तड़पकर मरते देखना था । मेरा माथा सुन्न होता महसूस हुआ और आँखों के आगे तेजी से अँध्ेरा छाने लगा । पूरी दुनिया डूबती-सी मालूम पड़ने लगी, और मैं आँखे चीरे शून्य में शून्य को निहारने लगा ।
और पिफर मैं वही पहुँच गया था, जहाँ से चला था । मगर इस बार कोई राह नहीं थी बुराई से भी नहीं ।



अमित कुमार नयनन


मैं तुम्हंे जीवित कर दूंगा


[ ''PUBLISHED STORY IN @ THE YUPATRA MONTHLY'' ]


इस विवादास्पद कथा की शुरूआत मैं भूत-प्रेत से करने जा रहा हंू । विवादास्पद इसलिए कि विवाद हो और मेरा नाम हो’ जाए । भूत-प्रेत में विश्वास है या नहीं’ अलग बात है मगर कहानियों की दुनिया में यह सदा से एक एडवांस और सफल टाॅपिक रहा है, जिसकी सफलता की एडवांस में बुकींग हो जाती है । भूत-प्रेत की कहानियों की सफलता का एक प्रमुख कारण रहा है । भूत-प्रेत हमारी कल्पना से जुड़ा है, और कहानी का जन्म कल्पना से है । वैसे सच कहंू तो भूत-प्रेत है, जैसे आप मेरे भूत हैं और मैं आपका प्रेत हंू । सुनने में कुछ अजीब लगेगा मगर दो अजनबी जब मिलते हैं, एक दूसरे के लिए भूत-प्रेत ही तो होते हैं । इसलिए पाठक और लेखक जब पहली बार मिलते हैं, एक-दूसरे के लिए भूत-प्रेत ही होते हैं । 
उस रात मैं सोया था । अचानक आहट हुई । मैं शंकित हो गया, कहीं भूत-प्रेत तो नहीं । मैंने देखा तो पाया - नहीं ! चूहा था, मेरी जान-पहचानवाला । मेरे घर में ही तो रहता था । उसकी कृपा से बिल्ली आने लगी तो वह भी भूत-प्रेत नहीं रही, बिल्ली के पीछे कुत्ता’ तो कुत्ता भी भूत-प्रेत नहीं रहा और कुत्ते की लाग् से उसका जो’ मालिक आया वह भी मेरे लिए भूत-प्रेत नहीं रहा - उसका नाम ‘जो’ ही तो था । जो और हम जल्द ही अच्छे मित्र बन गए । जो जो भी करता था, मुझे अच्छा लगता था । मैं प्यार से उसे जोजो बुलाने लगा, वह चिढ़ता था - यह उसके कुत्ते का नाम जो था ।  
इसी तरह कई दिन गुजर गए । एक बार उसे कहीं बाहर जाना था ‘परदेश’, मगर दरअसल उसे अपने घर जाना था - बाहर तो यह था परदेश । मैं उसे स्टेशन छोड़ने गया । रास्ते में बात-बात में भूत-प्रेत का जिक्र निकल आया । बात मैंने ही शुरू की थी, एक सवाल से - भूत-प्रेत है या नहीं ?
इस रोमांचक विषय पर हम कापफी देर बात करते रहे । ट्रेन आने में लेट थी, इसलिए भी यह प्रसंग लंबा खींच गया । उसने मुझसे पूछा:
फ्तुम्हे भूत-प्रेत में विश्वास है ।
फ्कह नहीं सकता । इस रूप में जरूर है, जब हम किसी अजनबी से पहली बार मिलते हैं - वह हमारे लिए भूत-प्रेत ही होता है । ..जैसे हम दोनो ।
फ्हम पहली बार नहीं मिले ।
फ्पहली बार कब मिले ? मुझे तो ऐसा कुछ याद नहीं आ रहा ।
फ्हम पहली बार कभी नहीं मिलते । जीवन यात्रा है, हम यात्राी साथ-साथ चलते हैं ।
उसने छायावाद की छाया में बात को आगे बढ़ाया - फ्भूत-प्रेत होता है या नहीं, तुम्हे विश्वास हो जाएगा । इस बारे में मैं तुम्हे एक किस्सा सुनाता हंू ।
उसने कहानी आरंभ की -
फ्एक तांत्रिक था । उसके वश में कई भूत-प्रेत थे । पिफर भी उसकी आमदनी साधरण थी । एक दिन उसके हाथ जिन्न आ गया । उसने विशेष शक्ति थी । उसमे भी विशेष शक्ति आ गई । उस विशेष शक्ति से वह कई अनछुए, नए काम निपटने लगा । आमदनी थोड़ी बढ़ गई, मगर पिफर भी वह रहा गरीब ही । उसने जिन्न की विशेष शक्ति देख उसपर अतिरिक्त कार्य-भार लाद दिया । जिन्न सक्षम था, उसने पलक झपकते सारे काम निपटा दिए ।
तांत्रिक जिन्न की कार्य-शैली से अत्यंत प्रभावित हुआ । उसकी आमदनी बढ़ गई थी । अब वह उससे हेर-पफेर के काम भी करवाने लगा । जिन्न अपने जन्म काल में भला आदमी था, उसने ऐतराज किया । मगर तांत्रिक ने डरा-ध्मकाकर उससे काम लेना शुरू कर दिया । जिन्न अनमने मन से कार्य निबटाने लगा । तांत्रिक के आमदनी की पफसल जिन्न देवता की कृपा से दुगुनी हो गई । तांत्रिक खुश, जिन्न नाखुश ।
आमदनी से प्रभावित तांत्रिक ने अब हेरा-पफेरी से आगे का रास्ता पकड़ा । जिन्न ने पुरजोर विरोध किया, मगर वह तंत्रा का गुलाम था । गुलाम गुलाम बना रहा, और मालिक उसकी दासता को अपनी फसल बनाता रहा । इसी तरह कुकृत्य बढ़ते गए और बढ़ती गई आमदनी । तांत्रिक अब अमीर हो चुका था । जिन्न पिशाच था, मगर पिशाचत्व की ताकत तांत्रिक में आ गई थी । उसके खूनी दंतांे को ध्न का खून लग चुका था । उसकी हवस बढ़ती जा रही थी । अब तांत्रिक सोते-जागते अन्न नहीं ध्न खाता था । जिन्न की आत्मा मर रही थी, उसे खान-पान पूरा मिलता मगर जमीर के मरने से वह भूखा रहा । मालिक को बस आमदनी और काम से मतलब था, जिन्न जाए जहन्नुम में । दोजख की आग झेलकर आया जिन्न पिफर से उसी जहन्नुम की कल्पना करने लगा, जहां से वह आया था । उसे ईश्वर के प्रकोप का भी डर था, यहां के कर्म वहां भी भोगने होंगे - यहां भी नर्क वहां भी । उसकी आत्मा गवाही नहीं दे रही थी । वह इस पाप-क्रिया से उकता गया था ।
अंततः फैसले का दिन आ गया । 
एक दिन तांत्रिक ने जिन्न को एक युवक की हत्या का निर्देश दिया । जिन्न ने अभी तक खून नहीं किया था, वह खूनी नहीं था । यह पतन की पराकाष्ठा थी । वह साफ नकार गया । तांत्रिक ने प्रलोभन दिया, वह पिफर भी राजी नहीं हुआ । तांत्रिक ने उसे भस्म करने की चेतावनी दे डाली, मगर जिन्न भी गर्म हो गया । 
‘मैं तुम्हे मानव शरीर दे दंूगा ।’ - तांत्रिक ने अंतिम समझौतापरक चेतावनी देते हुए कहा - ‘मैं तुम्हे जीवित कर दूंगा ।’
‘तू क्या मुझे जीवित करेगा मरे हुए इंसान । मेरे अंदर का आदमी अभी जिंदा है । अच्छा है, तू मुझे भस्म कर दे मगर मैं किसी बेगुनाह को भस्म नहीं सकता । मैं जिन्न हंू, जल्लाद नहीं’ शैतान नहीं ।’ - जिन्न गर्म हो गया और शहादत की मुद्रा में आ गया । तांत्रिक ने जिन्न को भस्म कर दिया । जिन्न भस्म हो गया । ईश्वर सारे करतब देख रहा था । भले जिन्न को भस्म करने के कारण और उसके नियमों की अवहेलना के कारण उसने तांत्रिक को भस्म कर दिया । ईश्वर की कृपा से जिन्न को दूसरा जन्म मिला, उसे प्रेत योनि से मुक्ति मिल गई । उसे मानव शरीर मिला । तांत्रिक को भी दूसरा जन्म मिला, उसे भी मानव शरीर मिला’ मगर तब और अब में एक अंतर था । इस बार उसके पास तंत्र नहीं प्रजातंत्र था ।
एक इंसान का जन्म जिन्न के जन्म से ज्यादा कठिन है । ईश्वर ने उसे कठिन काम दिया, मगर यह इस वक्त ईश्वर की जरूरत है । इंसान के अंदर का आदमी मर गया है । अब ईश्वर को भी जिन्न से ही काम चलाना पड़ेगा । जानते हो, वह जिन्न और तांत्रिक इस वक्त कहां हैं ? वह जिन्न मैं हंू, वह तांत्रिक तुम हो ।
मैं जो के बात कहने की मुद्रा पर हैरान था । मगर वह सबकुछ इतने विश्वास से कह रहा था, जैसे उसे पूर्व जन्म का एक-एक किस्सा याद हो । उसकी बात पर अविश्वास कर पाना भी कठिन था । जो ने बात खत्म की, मगर यह बात मेरे लिए जैसे शुरूआत थी । उसकी बातों में कई अनछुए प्रश्न थे, जो मेरे अंदर घुमड़ रहे थे । उसने ऐसा क्यों कहा ? 
इससे पहले कि मैं उससे कहानी का आशय या और कुछ पूछता, ट्रेन आ गई । वह चला गया । मैंने सोचा, जो जब लौटकर आएगा, मतलब पूछ लूंगा । मगर वह नहीं लौटा - कभी नहीं, आजतक नहीं । मैं समझ गया - जो चला जाता है, लौटकर नहीं आता । क्या वह वाकई भूत-प्रेत था, जिन्न था ? नहीं ! वह तो मेरा मित्रा था, जिसका पता मुझे मालूम नहीं था । मगर उसने अपना पता मुझे दिया था - पिछला जन्मऋ हम एक यात्राी हैं, वह जिन्न था और मैं तांत्रिक ।
मैें पछता रहा था । मैंने उससे सवाल किया ही क्यों, जिन्न आज मुझे पिफर से छोड़कर चला गया था । अब मुझे समझ आ रहा था । जो चला गया, लौटकर नहीं आता । मैं तांत्रिक मेरी तंत्र-शक्ति छीनी जा चुकी थी, इसलिए अब मैं यह नहीं कह सकता था ‘मैं तुम्हे जीवित कर दूंगा’ । जिन्न हाथ से निकल चुका था । ..वह पिफर से लापता, मैं पिफर से भस्म । शायद हम यात्राी अब अगले जन्म में मिलें - हम यात्राी हैं, ऐसा उसने ही तो कहा था ।
[ ''PUBLISHED STORY IN @ THE YUPATRA MONTHLY'' ]

No comments:

Post a Comment