Sunday, 11 August 2024

THE GREAT GOD : THE WRITER STORY "PAARSEE"

 





AMIT KUMAR NAYNAN


'PAARSEE @ 1001 FREE STORIES'


पारसी



'source' : wikipedia


पारसी !

उस मुहल्ले में वह एकमात्र पारसी था । इसलिए सब उसे नाम से कम और पारसी से अधिक बुलाते थे । हांलाकि यह मित्रवत् था । इसलिए उसे मित्र या परिचित ही उसे इस संबोधन से बुलाते थे । 

मुहल्ले में पहले कुछ रहते थे मगर धीमे-धीमे कुछेक रह गए फिर एक । इसके पीछे कोई बाहरी कारण नहीं थे या किसी से कोई समस्या नहीं थी । उनके अपने कारण थे । उनके विस्थापन भी नहीं हुए थे, बस कम होती संख्या के कारण ऐसा हुआ था । कम होती संख्या का कारण वह बहुत हद तक खुद थे ।

पारसी समुदाय संपूर्ण दुनिया का सबसे सुसंस्कृत समुदाय में से एक है । आज इनकी तादाद नाममात्र रह गई है ।


पारसी !

पारसी ने आवेस्ता को नमन किया, अहुरमज्दा पर शीश नवाया और अपनी पूजा पूर्ण की, साथ ही आवाज देनेवाले को आवाज दी - आ रहा हूं मैं ..!

पारसी और वो दोनो दोस्त आपस में पहले घर के प्रांगण फिर बरामदे में बात करते हैं । --फिर बात करते गली में आगे की ओर बढ़ते हैं ।

सुना है कि आप कहीं और जाने के बारे में सोच रहे हैं । ..आप कहीं भी जाइए मगर जड़ों से जुड़े रहिए । काम-ध्ंध करने कौन नहीं बाहर जाता । मगर चिड़िया अपने घोंसले को तो नहीं भूलती ।

आए थे तो तब भी हम बाहर से ही आए थे ।

अब आप बाहर के नहीं हैं ।

सो तो है । आप सबो का प्यार है । इतना कि भूल नहीं सकता ।

क्या पता था कि जरथु्रस्ट के वंशज को अपनी जन्मभूमि और मातृभूमि से तड़ीपार होना पड़ेगा । और एक ऐसे समाज और देश में जगह मिलेगी’ जिसे हम जानते तक नहीं थे ..। - पारसी अपने अतीत वर्तमान की मिमांषा करने लगे । अतीत से वर्तमान तक की परछाइयां उनके मस्तिष्क और दिलो-दिमाग पर तैरने लगीं । इस क्रम में वह सामयिक व्याख्या और निष्कर्ष पर भी पहुंचने लगे - अगर हम तड़ीपार हुए तो इसके लिए अपने और परायों दोनो को दोष नहीं दे सकते । उस वक्त की दुनिया ही ऐसी थी । सभ्यता प्रगति कर रही थी, दुनिया छोटी पड़ रही थी ..सभी अपने इलाकों से निकलकर दूसरे इलाकों पर अतिक्रमण कर रहे थे । इसी सब में साम्राज्यवाद का विस्तारवाद का खेल भी जो कभी क्षेत्राीय स्तर पर था वृहद स्तर पर शुरू हो गया । 

आंखों के सामने अतीत के पन्ने खुल रहे थे - सीमाएं छोटी पड़ने लगी थीं, इसलिए सीमाएं बढ़ने लगी थीं ।  

उनके परिचित मित्र महोदय उनकी मिमांषा में शामिल हुए, साथ ही तार्किक अन्वेषण के भाव से पूछ भी लिया -

--मगर और समाज की भांति पारसी समुदाय पर ही सीमित होने की स्थिति क्युं आई !

पारसी की आंखें जो अतीत वर्तमान के बीच गलबहियां कर रही थीं, अचानक परिचित मित्र महोदय की ओर मुड़ गईं । वह सारगर्भित मुस्कान के साथ बोले, मानो इसमे सारा सार छिपा हो । 

 --क्योंकि दुनिया में शक्ति का बोलबाला है ज्ञान का नहीं । - उन्होंने एक बार में सारी बात कह दी - अगर अपने अंदर के ज्ञान को जीवित रखना है तो शक्ति का साथ लेना ही होगा ।

इस बीच कुछ अन्य परिचित भी मिल गए । स्वाभाविक रूप से परिचर्चा में वह भी जुड़ गए । बात सहज वार्ता के रूप में बढ़ने लगी ।

ऐसा नहीं है कि एक अहिंसावादी समाज नहीं जी सकता । ..और भी तो जी रहे हैं ।

एक अहिंसावादी समाज तभी तक कायम रह सकता है जबतक कि वह आत्मरक्षा करना जानता है नहीं तो उसका लुप्त होना तय है । - पारसी महोदय ने एक ऐसी बात कही जिसका उतर देना सही मंें थोड़ा या अधिक मुश्किल था, क्योंकि इसका उतर लोगो के नजरिए पर अलग हो सकता था मगर पारसी का कहा एक-एक शब्द शायद अक्षरशः सही था  - आप देखिए । आज और कल की दुनिया में जो शक्तिशाली हैं वह सही हों या गलत सुरक्षित हैं और जो शक्तिहीन हैं वह असुरक्षित ।

इसका मतलब यह नहीं कि इस दुनिया में सिर्फ हिंसावादी ही जी रहे हैं । इसका मतलब यह है कि हिंसावादी ही नहीं जी रहे अहिंसावादी भी जी रहे हैं मगर अगर अहिंसावादी आत्मरक्षा में शक्तिशाली नहीं हैं तो फर उनका अस्तित्व  धीमे-धीमे विलुप्त होने लगता है ।

यह तो हुई अतिक्रमण या आक्रमण से बचने का नियम । मगर आंतरिक कारण तो रहे होंगे ।

वह अधिक हैं ।

हम आध्ुनिक दुनिया से तालमेल बिठाने में काफी हद तक नाकाम हैं । दुनिया बदल रही है । मगर हम अपनी परंपराओं को जड़ों से पसंद करते हैं । हम उनकी कीमत पर आध्ुनिक दुनिया से जुड़ना पसंद नहीं करते ।

सभी परंपराएं अपने देश और काल के अनुसार बनी होती हैं । आज के दौर में उस समय के नायक होते तो आज के अनुसार नियम बनाते । परंपराएं बनतीं ।

आनेवाले समय में यह परंपराएं भी आवश्यकता के अनुसार अपग्रेडेशन मांगती ।

क्या इंसान ने जब झोंपड़ी में रहना शुरू किया तो उसने जब महल बनाए तो क्या महल में रहना शुरू नहीं किया । यह सब चलता है । हमे नए-पुराने सबको स्वीकारना होता है ।

हां । इसमे मुख्य मसला यह होता है कि हम जो भी करें, वह सबके हित और किसी के अहित में न हो । बस । परंपरा का बेसिक यही है बाकि सब तो कृत्रिम है ।

पारसी ने शायद किसी बात पर पहली बात सहमति जताते हुए पूर्ण-समर्थन दिया था । इसमे वह अपने और अपने समाज की अवस्था से कुछ हद तक चिंतित भी मालूम पड़ता था' अनकही पीड़ा और अनकहा सच .. -  हां । सही कहा आपने । हमे सोचना होगा ।।

आपको क्या लगता है, संख्यात्मक स्तर पर सीमित होने में आपके क्या कारण रहे होंगे ।

बाहरी कारण तो अतिक्रमण और आक्रमण ।

पारसी ने उन दोनो की बात का जवाब देते हुए कहा - आंतरिक कारण में हमारा समाज एकाकी समाज है मगर सहदय और सुसंस्कृत । इस समाज को अपनी सुसंस्कृति को बचाए रखने में आनंद आता है । और यह विलय से इसलिए डरता है कि इसकी सुसंस्कृति प्रभावित न हो ।

..और ..।

हमारे जेनेटिक रूल्स् ने हमे काफी हद तक सीमित किया है । संख्यात्मक स्तर पर सीमित होने में एक कारण यह तो है । हम अपनी नस्लों में किसी और का विलय आम तौर पर नहीं कर पाते । अगर होता है तो वह दूसरी नस्ल का हो जाता है ।

HIGHLIGHTS

आप कहते हैं आप जाना चाहते हैं । हम आपको कभी नहीं जाने देंगे । 

मेरे हालात ऐसे हैं ..।

..हालात कैसे भी हों । हम आपको जाने नहीं देंगे ।

--

अगर इस देश में अतिथिदेवो भवः की परंपरा और संस्कृति नहीं होती तो हम पता नहीं कहां गुम हो गए होते ..।

इस देश की संस्कृति बहुत ही महान है !

आपकी भी संस्कृति बहुत महान है पारसी साहब ।

आपका अपना कोई देश नहीं ..मगर जिस समाज और देश में आप गए हैं उस समाज और देश से आपने जितना लिया है उससे अधिक दिया ही है --आप जिस समाज और देश का हिस्सा रहे हैं, आपने वहां लेने से अधिक दिया ही है । आपके समाज ने जो सादगी, अच्छाईयां और सच्चाइयां ..देश-दुनिया को दी हैं ..वह अपने आप में एक महान संस्कृति की मिसाल हैं ।

पारसी किसी भी समाज और देश के लिए पारस हैं ! 

किसी भी देश-समाज-संस्कृति के लिए 

पारसी का पारस हैं --पारसी समाज का पारस हैं !

--

INHONE SABKUCH TO SEEKHA MAGAR SHAAYAD YUDH KALA NA SEEKHA ..NAHI TO APNE HI DESH SE NA BHAAGNA PADA HOTA, KISEE AUR DESH MEI PANAAH NA LENI PADTEE ..

BAAKI KISEE DESH MEI JAATE TO SAMRAAJYAWAAD KE YUG MEI KHAASKAR ..SHAAYAD HAMAAREE PAHCHAAN LUT HO JAATEE ..

WO TO BHALA HO IS DESH KA JISKEE SABHYATA SE UNCHI SANSKRITI HAI ..

ISKE ATITHIDEVO BHAVAH KI SANSKRITI NE HAME BACHA LIYA ..NAHI TO SHAAYAD HUM KAB KA KHATM HO GAE HOTE ..AUR NA SIRF BACHA LIYA BALKI APNA BHI BANA LIYA ..

HUMARA SAMAAJ AUR DHARM TO BACH GAYA ..MAGAR ..SAMASYA KUCH HAMARE DHARM KE REETI RIWAAJON MEI RAHI JISME SAMAY KE ANUSAAR SUDHAAR KI JAROORAT THI ..JO HUM KAR NA SAKE ..AUR AAJ YAH HAALAT/HALAAT HAIN KI HUM SANRAKSHIT JEEWON KI TARAH MANO SANRAKSHIT SAMAAJ KI SHRENI MEI AA GAE HAIN ..!

--

इतनी उन्नत सुसंस्कृत सभ्यता का यंू हो जाना अच्छी बात नहीं । इसके लिए हमे ही प्रयास करने होंगे । 

..जमाने के अनुसार बदलना होगा, हमे नहीं हमारे तौर-तरीकोें को ..।

--

आप जब आए थे तब अतिथि थे, अब आप परिवार हैं !

पहले आप अतिथि थे अब आप परिवार हैं !

**

TO BE CONTINUED

No comments:

Post a Comment