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शब्द की जमात में अर्थ ढूंढते हैँ, व्यर्थ ढूंढ़ते हैँ ..अर्थ तो होते हैँ भाव में भावनाओं में ..क्यों नहीं सत्य ढूंढ़ते हैँ !
तुम उनकी चाल के कहीं मोहरे तो नहीं हो ..तुम उनके खेल के चेहरे तो नहीं हो ..पहचान चेहरे को ..पहचान चाल को ..
तुम मोहरे तो नहीं हो ..उनकी चाल के चेहरे तो नहीं हो !
बिसात बिछ गई है, मोहरे सज गये हैँ ..मोहरों के कहीं सेहरे तो नहीं हो ..उनकी चाल के कहीं चेहरे तो नहीं हो !
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तुमने भी कौन-सा कम गुल खिलाया है
जब भी मिला मौका' हाथ आजमाया है
.. जब भी जहां भी जैसे भी जैसा भी मौका मिला ..
हाथ आजमाया है,
यही आज की माया है !
तुम कौन-सा दूध के धुले हो ..
प्राणी इंसानी चरित्रों के तुम भी तो वही हो !
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मैदान भले सबके अलग हों,
मगर लक्षण सबके एक हैँ ..
कौन यहां नेक हैँ
एक हैँ सभी चेहरे' सभी स्वयंसिद्ध नेक हैँ ..
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